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क्षण भर के लिए अपने आपका ही निरीक्षण, परीक्षण या समीक्षण कीजिये। आपका "मैं" किसी विकीर्ण कण के समान संकीर्ण तो नहीं हो गया है ? आपका "मैं" ज्ञान के प्रकाश को आवृत्त तो नहीं करता ? आप कब-कब, कहाँ-कहाँ, किस-किससे "मैं" को जोड़ते हैं और कैसे-कैसे तोड़ते हैं? आप जान में, अनजान में अपने "मैं" को कितना महत्त्व देते हैं? अपने "मैं" में कितना लीन रहते हैं? दृष्टि को उदीर्ण और विस्तीर्ण होने दीजिये। अस्मिता को = मैं-पन को दृश्य के साथ नहीं, असंग चेतन के साथ जोड़िये। वह "मैं" प्रकाशक होगा तो आप समाधि की ओर बढ़ेंगे। अंतर्यामी होगा तो भक्ति-भावना और शरणागति का उदय होगा।
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