पितामह की प्रार्थना के ठीक नौ मास पूर्ण होने के दिन ब्रज के ठाकुर श्रीशान्तनुबिहारीजी की कृपा से भारतवर्ष के पवित्रतम वाराणसी मण्डल के महराई नामक ग्राम में, सरयूपारणीय ब्राह्मण वंश में महाराजश्री का जन्म संवत् 1968 श्रावणी अमावस्या तद्नुसार शुक्रवार 25 जुलाई 1911 को पुष्य नक्षत्र में हुआ था। श्रीठाकुरजी की कृपा से प्राप्त होने के कारण बालक का नाम ‘शान्तनुबिहारी’ रखा गया।
बड़े-बड़े ज्योतिषशास्त्रियों ने महाराजश्री की उम्र 19 वर्ष ठहराई। मृत्यु का भय महाराजश्री को आध्यात्म के मार्ग कीसंत त ले गया । सत महापुरुषों ने स्पष्ट कहा कि प्रारब्ध से प्राप्त मृत्यु से बचने का उपाय तो हम नहीं कर सकते; किन्तु ऐसा ज्ञान दे सकते है जिससे मृत्यु की विभीषिका सर्वदा के लिये मिट जाये। वस्तुतः ऐसा ही हुआ। महाराजश्री के अन्तःकरण में अमृतब्रह्म का आविर्भाव हुआ और मृत्यु की काली छाया सर्वदा के लिये दूर भाग गयी
एक बार महाराजश्री प्रयाग में झूसी के सुप्रसिद्ध ब्रह्मचारी प्रभुदत्तजी से मिलने गये थे। वहीं पहली बार श्रीउड़ियाबाबाजी महाराज के दर्शन हुये थे और उनके साथ वेदान्त सम्बन्धी अनेक प्रश्नोत्तर हुए। बाबा की अद्वय-निष्ठा और जीवनमुक्ति के विलक्षण सुख की मस्ती देखकर महाराजश्री मंत्रमुग्ध हो गये। बाबा का स्नेह और
वात्सल्य उन्हें प्राप्त हुआ। महाराजश्री के संन्यास ग्रहण करने के बारे में बाबाकी ही अंतरंग प्रेरणा थी और ज्योतिषपीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी श्रीब्रह्मानन्द सरस्वती से संन्यास-दीक्षा ग्रहण की। संन्यास से पूर्व गोरखपुर में ‘कल्याण’ के सम्पादक मण्डल में महाराजश्री सात वर्ष तक रहे।
सर्वप्रथम दस वर्ष की वय में इनके पितामह ने इनसे श्रीमद्भागवत का पाठ कराया और तब से लीला संवरण पर्यन्त श्रीमद्भागवत एक सुहृद के समान उनका साथी रहा। उनका नित्य का सत्संग भी निजानन्द की मस्ती थी, जो 17 नवम्बर 1987 की सायं सत्संग सभा तक अनवरत चलता रहा। आज भी सत्संग-प्रेमी ऑडियो सीडी एवं ग्रन्थों के माध्यम से उनकी अमृतवाणी का आनन्द लूटते रहते हैं।
19 नवम्बर, 1987 मार्गशीर्ष कृष्ण त्रयोदशी, प्रातः दो बजे के करीब अर्थात ब्रह्मबेला में व्यष्टि-प्राण समष्टि-प्राण से एक हो, सर्वव्यापक हो गये।
महाराजश्री द्वारा स्थापित ‘आनन्द-वृन्दावन आश्रम’ श्रीवृन्दावन धाम में तीर्थराज प्रयाग सदृश है, जहाँ कर्म, भक्ति और ज्ञान का संगम है। आश्रम में सत्संग, श्रीठाकुर-सेवा, गौ-सेवा, संत-सेवा, वेद-विद्यालय में शास्त्रों का स्वाध्याय, स्वामी अखण्डानन्द पुस्तकालय, स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती ऑडियो विजुअल लाइब्रेरी, निःशुल्क औषधालय आदि विभिन्न गतिविधियों के साथ-साथ महाराजश्री के द्वारा शुरू की गयी सभी आचार्यों की जयन्ती मनाने की प्रथा सांस्कृतिक समन्वय कि दृष्टि से अविस्मरणीय रहेगी। यह महाराजश्री की के उदार दृष्टिकोण का उत्तम उदाहरण है।
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